Monday, January 07, 2013


विद्या भूषण रावत

मोहन भगवत कहते हैं के महिलाओ पर हिंसा इंडिया का फिनामिना है और अपना भारत तो 'महान' है। यह तो पश्चिमी संस्कृति का असर है जो हमारे यहाँ हिंसा हो रही है नहीं तो हम तो 'धर्म' के साशानाधीन थे न। पता नहीं, हमारी खाप पंचायते कितनो को पी गयी हैं के पुलिस थानों में शिकायते भी दर्ज नहीं होती। मतलब यह के हिंसा और बलात्कार तभी माँने जायेंगे जब पुलिस में रिपोर्ट होगी अन्यथा उसका मतलब यह के हमारी गाँव में धर्म का राज्य है। वाकई में हमरे गाँव में धर्म की सत्ता चलती है और उसका विरोध होने पर सजाये मौत होती है और उसका पता भी नहीं चलता। आज भी गाँव में जो हो रहा है वोह एक परदे के भीतर छुपा हुआ है और उसकी खबर तक नहीं लगती। आखिर तुलसी की सामंती मानसिकता ने बिना देखे ही थोड़े लिखा के 'ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी'.

मोहन कहते हैं के शादी सामाजिक गठबंधन है जो पुरुष और स्त्री के बीच होता है जिसमे पुरुष की जिम्मेवारी कमाँ कर लाना और महिला की बच्चे और घर संभालना है। अगर शादी सामाजिक कॉन्ट्रैक्ट है तो उसके ना चलने पर उसको तोड़ने में इतना भयभीत क्यों होते हैं हमारे रहनुमा। अगर [पुरुष अपने कर्त्तव्य को नहीं पूरा कर रहे तो शादी का कॉन्ट्रैक्ट ख़त्म हो जाना चाहिए लेकिन वोह होता नहीं। यह गठबंधन बेमेल है जहाँ एक पार्टनर के पास कोई ताकत नहीं है और वोह धार्मिक परमराओ को धोती हुई लुटती रहती है और पुरुष अपना पुरुषार्थ दिखाते हैं। आखिर हम राम को पुरुशारती या आदर्श पुरुष क्यों मानते हैं। और जब तक हमारे आदर्श ढकोसले और झूट पर आधारित होंगे तो कोई न्याय की उम्मीद कैसे कर सकता है।

दिल्ली की घटना के बाद से ही महिलाओं का सवाल अब मुख्य बन चूका है और इस पर व्यापक बहस है। संघ इस बहस को केवल बलात्कार तक सीमित रखना चाहता है और इसको केंद्र सर्कार और कांग्रेस तक सीमित कर व्यापक मुद्दे से ध्यान बंटाना चाहता है। इसलिए सुषमा स्वराज उस लड़की को ' अशोक चक्र' देने की बात कहती हैं जैसे यह पुरुस्कार किसी के बलात्कार होने पर दिए जाते हों। प्रश्न यहाँ पर भरी पुरुस्कार या कानून के नाम कारन की नहीं है अपितु न्याय की है। हमारा समाज, हमारी सरकार और हमारी वयवस्था चरमरा गयी है और उसका जवाब देना जरुरी है। यह भाजपा या कांग्रेस का अथवा दिल्ली या मुंबई का नहीं है, प्रश्न यह है के हमारे समाज में महिलाओं के प्रश्न कैसे रहेंगे और क्या हम ईमानदारी से उनके उत्तर ढूँढने की कोशिश करेंगे भी या नहीं

आशा राम बापू कह रहे हैं के बलात्कार के लिए वह लड़की जिम्मेवार थी और यदि वह उन लडको को भाई कह देती या उनसे भीख मांग लेती तो बच जाती . यह उसी मानसिकता की सोच है जो कहते हैं लड़की को जुबान चलने का हक़ नहीं या उसे अपनी बात कहने का अधिकार नहीं। आशाराम जी यदि बात इतनी आसान हो तो सभी लड़कियों को राखी का धागा अपने पर्स में रखने के लिए ताकि वे सुरक्षति रहें। अब एक नया धंधा चला है के भारत में पच्छिमी संस्कृति बढ़ रही है इसलिए ऐसा हो रहा है।

पूरी बहस यहाँ तक पहुँच गयी है मनो सेक्स बहुत बड़ा अपराध है और सेक्स और बलात्कार में कोई अंतर करना ही बहुत मुश्किल हो गया है। नैतिकता के पुजारी अब हमारे बेडरूम तक झांकेंगे और कहेंगे के क्या प्यार है और क्या अपराध। हमें संभल कर इन प्रश्नों को देखना है क्योंकि अब हमारी सामंती मानसिकता का पर्दाफास हो रहा है और संघ और उसके बहुदेवता इसलिए अब अपनी जुबान खोलने लगे हैं क्योंकि पहले तो वे केवल दिल्ली वाली घटना के परिपेक्ष्य में बात कर फांसी आदि की सजा की बात कर रहे थे लेकिन जब लगा की बहस से हिंदुत्व का पूरा टायर फट जायेगा तो नागपुर वालो ने होश संभाला और अपनी बात रख यही दी। सवाल यह हैं की महिला हिंसा का प्रश्न बहुत व्यापक है और इसको धर्मो की ऊपर देखना पड़ेगा और जहाँ पर धार्मिक कानूनों को चुनोती देनी हो वहां देनी पड़ेगी। लेकिन उससे पहले हमें सेक्स को पाप कहने से रोकना होगा। यदि सेक्स पाप है तो 2 अरब भारतीय लोग पापी हैं और उनको बात करने का हक नहीं। मैं यह बात इसलिए कर रहा हूँ के धर्म के ठेकेदार यह ही चाहते हैं के महिला हिंसा को सेक्स से जोड़कर उसके अधिकारों पर अतिक्रमण किया जाए। सेक्स और बलात्कार होने पर महिला की 'अस्मिता' और 'अबरू' लुटने की बात अब बंद होनी चाहिए क्योंकि यह महिला को और प्रताड़ित करते हैं। सेक्स एक व्यक्ति चाहे महिला हो या पुरुष उनका व्यक्तिगत अधिकार है और अपनी सहमती से वे यह कर सकते हैं लेकिन नैतिकता के पुजारी अपनी सामंती सोच को थोपने के लिए अवसर तलाशते हैं। आज दिल्ली की घटना ने हरेक मठाधीश को अपनी बात कहने और गंगाजल में हाथ धोने के अवसर दिए हैं जहाँ रामदेव से लेकर आसाराम तक कुच्छ न कुछ कह रहे हैं।

आज हमें महिलाओं के प्रश्न पर बात करते समय अपनी संस्कृति और धार्मिक ग्रंथो का पुनर्पाठ करना होगा ताकि समाज के सामने कटु सच उजागर हो सके बरबरी के लिए कोई भी जंग धर्मो की चिता के बिना संभव नहीं है। महिलाएं धर्मो की 'रक्षक' हैं उनसे 'समाज' चलता है और 'परिवार' बनते हैं इसलिए इन सभी को 'बचाने' के लिए क़ुरबानी की जरुरत होती है और वो सभी धर्मपरायण लोग दे रहे हैं। आज जरुरत है इन रीति रिवाजो और परमपराओ को तोड़ने की और उनहे छोड़ने की ताकि नए भारत का निर्माण हो। यह निर्माण मनुवाद को पूर्णतया ध्वस्त किये बिना संभव नहीं है। महिलाओं की आज़ादी का प्रश्न सांस्कृतिक धार्मिक परम्परओ को छेड़े बिना संभव नहीं है और जो लोग उसे केवल 'बलात्कार' और उसकी फांसी तक सीमित रखना चाहते है वे औरत की आज़ादी के सबसे बड़े दुश्मन हैं क्योंकि वे 'पवित्रता' और 'सतीत्व' पर प्रश्न भी खड़ा नहीं करना चाहते क्योंकि अंत में बलात्कारी को चाहे मृतु दंड हो या आजीवन कारवाश, उत्पीडित महिला तो 'जिन्दा लाश' बन कर ही रहेगी क्योंकि मनुवाद की द्रिस्थी में उसकी 'पवित्रता' खत्म हो चुकी है। सुष्माजी या आसाराम इन सवालो को कारपेट की नीचे ही देखते रहना चाहते हैं क्योंकि ज्यादा बहस हमारे समाज को 'खत्म' कर सकती है और पुरोहितो की दुकानदारी बंद हो सकती है और यह सभी 'समझदार' हैं और अपनी दुकान बंद नहीं होने देंगे लेकिन हमें भी पूरा जोर लगाना होगा ताकि मनुभक्तो की दूकान पर पूर्णतया ताले लग जाएँ और हम एक प्रबुद्ध भारत का निर्माण कर सके जहाँ सभी आज़ाद हवा में सांस ले सके।

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